![DNA टेस्ट पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला! अब बदल जाएंगे DNA टेस्ट के नियम, करना होगा ये काम](https://destinationnortheast.co.in/wp-content/uploads/2025/01/supreme-court-dna-test-paternity-privacy-guidelines-all-we-need-to-know-1024x576.jpg)
DNA Test: सुप्रीम कोर्ट ने DNA टेस्ट को लेकर एक बड़ा फैसला सुनाया है, जिससे पितृत्व जांच और इससे जुड़े विवादों की प्रक्रिया में अहम बदलाव आ सकते हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी व्यक्ति का DNA टेस्ट उसकी सहमति के बिना नहीं कराया जा सकता, क्योंकि यह उसकी निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों में संवेदनशीलता बनाए रखना बेहद जरूरी है ताकि किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसान न पहुंचे।
पितृत्व जांच में कोर्ट की अहम टिप्पणी
मंगलवार को न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने केरल के एक व्यक्ति से जुड़े पितृत्व विवाद की सुनवाई के दौरान यह अहम टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी मामले में DNA टेस्ट का आदेश देने से पहले अदालत को यह देखना चाहिए कि क्या यह टेस्ट वाकई में जरूरी है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर कोई पर्याप्त कारण नहीं है, तो इस तरह के परीक्षण कराना निजता के अधिकार का हनन माना जाएगा।
जबरन DNA टेस्ट से प्रतिष्ठा को खतरा
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात पर भी जोर दिया कि जबरन DNA टेस्ट कराने से व्यक्ति की निजी जानकारी सार्वजनिक हो सकती है, जिससे उसकी सामाजिक और पेशेवर प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंच सकता है। कोर्ट ने कहा कि खासतौर पर अगर मामला बेवफाई या पारिवारिक विवाद से जुड़ा हो, तो यह मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डाल सकता है। इसलिए अदालतों को ऐसे मामलों में संतुलन बनाए रखना चाहिए और दोनों पक्षों के हितों को ध्यान में रखना चाहिए।
निजता और कानून के बीच संतुलन जरूरी
DNA टेस्ट को वैज्ञानिक रूप से सटीक और विश्वसनीय माना जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि यह सिर्फ एक तकनीकी प्रक्रिया नहीं है। इसमें व्यक्ति की निजता और भावनात्मक पहलू भी जुड़े होते हैं। अदालत ने कहा कि अदालतें जबरन किसी व्यक्ति को DNA टेस्ट के लिए मजबूर नहीं कर सकतीं, जब तक कि इसके पीछे कोई मजबूत कानूनी आधार न हो।
DNA टेस्ट से जुड़े नियम और कानूनी प्रावधान
भारत में DNA टेस्ट से जुड़े नियमों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 और आईटी अधिनियम, 2000 के तहत विनियमित किया जाता है। ये कानून सुनिश्चित करते हैं कि किसी व्यक्ति की निजी जानकारी बिना उसकी अनुमति के सार्वजनिक न हो।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, DNA टेस्ट का उपयोग आमतौर पर निम्नलिखित मामलों में किया जाता है जैसे किसी नहीं बच्चों की अभिभावकता और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में या फिर हत्या, बलात्कार और अन्य आपराधिक मामलों में सबूत के तौर पर इसके आलावा संपत्ति और पारिवारिक उत्तराधिकार संबंधी विवादों में और साथ ही अनुवांशिक बीमारियों और अंग प्रत्यारोपण के मामलों में भी DNA टेस्ट किया जाता है।
लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि किसी भी स्थिति में DNA टेस्ट को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता, जब तक कि यह पूरी तरह से आवश्यक न हो।
जबरन DNA टेस्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब कई पितृत्व और पारिवारिक विवादों में DNA टेस्ट को निर्णायक प्रमाण के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन अब अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी व्यक्ति को जबरन इस प्रक्रिया से नहीं गुजारा जा सकता। यदि कोई व्यक्ति DNA टेस्ट कराने से इनकार करता है, तो अदालत को पहले यह तय करना होगा कि उसके इनकार का कोई ठोस आधार है या नहीं।
कोर्ट के इस फैसले का क्या होगा असर?
- पारिवारिक विवादों में संवेदनशीलता: अब अदालतें पितृत्व विवादों में DNA टेस्ट का आदेश देने से पहले अधिक सतर्क रहेंगी।
- निजता की सुरक्षा: किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकेगी।
- न्यायिक संतुलन: अदालतों को अब यह तय करना होगा कि क्या DNA टेस्ट से न्याय दिलाने में मदद मिलेगी या यह सिर्फ एक अनावश्यक हस्तक्षेप होगा।
- प्रभावित होंगे कानूनी मामले: यह फैसला उन मामलों में बड़ा प्रभाव डालेगा जहां DNA टेस्ट को अनिवार्य सबूत के रूप में देखा जाता था।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से DNA टेस्ट को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश मिल गए हैं। यह निर्णय सुनिश्चित करेगा कि किसी भी व्यक्ति की निजता और प्रतिष्ठा से समझौता न किया जाए और केवल अत्यंत आवश्यक मामलों में ही DNA टेस्ट को अनुमति दी जाए। इससे न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन बना रहेगा और अनावश्यक कानूनी हस्तक्षेप को रोका जा सकेगा।